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बलिया स्पेशल

महिला दिवस- जब बलिया की क्रांतिकारी महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई

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बलिया : 1942 की अगस्त क्रांति में नौ से 19 अगस्त तक प्रतिदिन एक नए इतिहास का सृजन हुआ। 1857 में मंगल पांडेय द्वारा स्वाधीनता के लिए जलाए गए मंगलदीप को 1942 में विश्व पटल पर अखंड ज्योति के रूप में प्रस्फुटित करने में मर्हिष भृगु की तपोभूमि बागी बलिया की क्रांतिकारी महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई। भारत मां की आंदोलनकारी बेटियों का देश की आजादी के प्रति जज्बा व उनके बागी होने का प्रतिफल यह रहा कि 13 अगस्त 1942 की क्रांति इतिहास के पन्नों में महिला क्रांतिकारी दिवस के रूप में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई।

अगस्त क्रांति के क्रम में 12 अगस्त को आंदोलनकारी छात्रों पर पुलिस द्वारा ढाए गए जुल्म के बाद 13 अगस्त 1942 को महिलाएं भी उग्र हो क्रांति की ज्वाला में कूद पड़ीं।लाठी चार्ज व गिरफ्तारी से क्षुब्ध छात्रों व क्रांतिकारियों ने 13 अगस्त को शहर में विशाल जुलूस निकाला जिसमें जनपद की क्रांतिकारी महिलाएं अहम भूमिका निभाईं। ये क्रांतिकारी महिलाएं न सिर्फ अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में अग्रणी रहीं बल्कि जुलूस का नेतृत्व भी किया। अज्ञात साधु वेशधारी कांग्रेसजन के संरक्षण व क्रांतिकारी महिला श्रीमती जानकी देवी के नेतृत्व में निकाला गया जुलूस चौक पहुंचा जहां बाबा के भाषणोपरांत यह जुलूस कांग्रेस भवन होते हुए सिविल जज के यहां पहुंचा व उन्हें कुर्सी छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लेने हेतु प्रेरित किया ¨कतु जज ने इस पर असमर्थता जाहिर करते हुए इंकार कर दिया। इस पर महिलाओं ने जज को अपनी चूड़यिां देते हुए कहा कि आप इसे पहनकर घर बैठें, हमलोग देश को आजाद करा लेंगे। उद्वेलित महिलाओं की आवाज सुनते ही जज घबराहट में कुर्सी छोड़कर भाग गया। तत्पश्चात महिलाओं ने जजी कचहरी पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया और वहां से जुलूस कचहरी की ओर चल पड़ा। विशाल जुलूस के कचहरी पहुंचते ही कलेक्टर को न पाकर हाकिम परगना मिस्टर ओयस को अपनी कुर्सी छोड़ने का आदेश दिया गया। इसी बीच जानकी देवी व अन्य क्रांतिकारी महिलाओं ने कलेक्ट्रेट पर लगे यूनियन जैक को उतार फेंका और वहां तिरंगा फहरा दिया। इसके साथ ही ओयस के जाने के बाद उसकी कुर्सी पर जानकी देवी आसीन हो गईं और कुर्सी पर बैठते ही इंकलाब ¨जदाबाद, भारत माता की जय के नारे लगाने लगीं। इसी दिन शाम को जिला कांग्रेस कार्यालय पर धावा बोलकर जहां पुलिस ने बलात कब्जा कर रखा था का ताला तोड़कर सभी कागजात निकाल लिए गए। वहीं कुछ कागजात नष्ट कर दिए गए जिसमें कांग्रेसजनों का नाम लिखा था। इसके बाद निकाले गए शेष कागजात, फाइल व रजिस्टर को कांग्रेसजनों के यहां सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया गया। जंगे आजादी में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाली बागी बलिया की महिलाओं में चरौंवा की मकतुलिया मालिन व पुरास की कल्याणी देवी भी खास र्चिचत रहीं। पुरास में तो कल्याणी देवी के लिए कुछ खास नहीं हुआ लेकिन चरौंवा में शहीद स्तंभ पर अंकित मकतुलिया का नाम उनकी यशकीíत की कहानी स्वत: कहता है। चरौंवा में जब ब्रिटिश फौज जुल्म ढाहने लगी तो मकतुलिया ने अछ्वुत वीरांगना का परिचय देते हुए अंग्रेज सेनापति के सिर पर हांडी दे मारी। इसके बाद उन्हें तुरंत गोलियों से भून दिया गया। कल्याण देवी पुरास में आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के साथ ही खाने-पीने व रहने की भी व्यवस्था देखती थीं। आज ही के दिन जनपद के अन्य प्रमुख क्षेत्रों में भी आंदोलन की सरगर्मी बढ़ गई। बिल्थरारोड के डम्पर बाबा मेले में, स्टेशन पर धावा बोलने का आह्वान किया गया। साथ ही खेजुरी मंडल के कार्यकर्ताओं ने मंडल कार्यालय का ताला तोड़कर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया, जहां पुलिस ने कब्जा कर रखा था। इस संदर्भ में नंदलाल शर्मा, इंद्रजीत तिवारी, केदारनाथ राम सहित नौ लोगों की गिरफ्तारी हुई। रेवती में स्कूली छात्रों द्वारा बवाल काटा गया व रेल पटरियां उखाड़ी गईं। वहीं बांसडीह में कांग्रेस रक्षक दल के नेता वृन्दा ¨सह द्वारा थाने के एक सिपाही को रिश्वत लेने के जुल्म में पकड़ कर 24 घंटे बंद रखने की सजा दी गई। जंग-ए-आजादी में बागी भूमि की क्रांतिकारी महिलाओं के तेवर ने हर शख्स के रग-रग में आजादी का जोश भर दिया।

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बलिया में भयंकर सड़क हादसा, 4 की मौत 1 गंभीर रूप से घायल

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बलिया में भयंकर सड़क हादसा सामने आया है जहां 4 लोगों की मौत की खबरें सामने आ रही है। वहीं एक गंभीर रूप से घायल बताया जा रहा है। जानकारी के मुताबिक ये हादसा फेफना थाना क्षेत्र के राजू ढाबा के पास बुधवार की रात करीब 10:30 बजे हुआ। खबर के मुताबिक असंतुलित होकर बलिया से चितबड़ागांव की ओर जा रही सफारी कार पलट गई। जिसमें चार लोगों की मौत हो गई। जबकि एक गंभीर रूप से घायल हो गया।

सूचना मिलने पर पर पहुंची पुलिस ने चारों शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दिया। जबकि गंभीर रूप से घायल को ट्रामा सेंटर में भर्ती कराया। मृतकों की शिनाख्त क्रमशः रितेश गोंड 32 वर्ष निवासी तीखा थाना फेफना, सत्येंद्र यादव 40 वर्ष निवासी जिला गाज़ीपुर, कमलेश यादव 36 वर्ष  थाना चितबड़ागांव, राजू यादव 30 वर्ष थाना चितबड़ागांव बलिया के रूप में की गई। जबकि घायल छोटू यादव 32 वर्ष निवासी बढ़वलिया थाना चितबड़ागांव जनपद बलिया का इलाज जिला अस्पताल स्थित ट्रामा सेंटर में चल रहा है।

बताया जा रहा है कि सफारी  में सवार होकर पांचो लोग बलिया से चितबड़ागांव की ओर जा रहे थे, जैसे ही पिकअप राजू ढाबे के पास पहुँचा कि सड़क हादसा हो गया।

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कौन थे ‘शेर-ए-पूर्वांचल’ जिन्हें आज उनकी पुण्यतिथि पर बलिया के लोग कर रहे याद !

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‘शेर-ए-पूर्वांचल’ के नाम से मश्हूर दिग्गज कांग्रेस नेता बच्चा पाठक की आज 7 वी पुण्यतिथि हैं. उनकी पुण्यतिथि पर जिले के सभी पक्ष-विपक्ष समेत तमाम बड़े नेताओं और इलाके के लोग नम आंखों से उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं.  1977 में जनता पार्टी की लहर के बावजूद बच्चा पाठक ने जीत दर्ज की जिसके बाद से ही वो ‘शेर-ए-बलिया’ के नाम से जाने जाने लगे. प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री बच्चा पाठक लगभग 50 सालों तक पूर्वांचल की राजनीति के केन्द्र में रहे.
रेवती ब्लाक के खानपुर गांव के रहने वाले बच्चा पाठक ने राजनीति की शुरूआत डुमरिया न्याय पंचायत के संरपच के रूप में साल 1956 में की. 1962 में वे रेवती के ब्लाक प्रमुख चुने गये और 1967 में बच्चा पाठक ने बांसडीह विधानसभा से पहली बार विधायक का चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें बैजनाथ सिंह से हार का सामना करना पड़ा. दो साल बाद 1969 में फिर चुनाव हुआ और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में बच्चा पाठक ने विजय बहादुर सिंह को हराकर विधानसभा का रुख़ किया. यहां से बच्चा पाठक ने जो राजनीतिक जीवन की शुरुआत की तो फिर कभी पलटकर नहीं देखा.
बच्चा पाठक की राजनीतिक पैठ 1974 के बाद बनी जब उन्होंने जिले के कद्दावर नेता ठाकुर शिवमंगल सिंह को शिकस्त दी. यही नहीं जब 1977 में कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में लहर थी तब भी बच्चा पाठक ने पूरे पूर्वांचल में एकमात्र अपनी सीट जीतकर सबको अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवा दिया था. तब उन्हें ‘शेर-ए-पूर्वांचल का खिताब उनके चाहने वालों ने दे दिया.  1980 में बच्चा पाठक चुनाव जीतने के बाद पहली बार मंत्री बने. कुछ दिनों तक पीडब्लूडी मंत्री और फिर सहकारिता मंत्री बनाये गये.
बच्चा पाठक ने राजनीतिक जीवन में हार का सामना भी किया लेकिन उन्होंने कभी जनता से मुंह नहीं मोड़ा. वो सबके दुख सुख में हमेशा शामिल रहे. क्षेत्र के विकास कार्यों के प्रति हमेशा समर्पित रहने वाले बच्चा पाठक  कार्यकर्ताओं या कमजोरों के उत्पीड़न पर अपने बागी तेवर के लिए मशहूर थे. इलाके में उनकी लोकप्रियता और पैठ का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे सात बार बांसडीह विधानसभा से विधायक व दो बार प्रदेश सरकार में मंत्री बने. साल 1985 व 1989 में चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने अपना राजनीतिक कार्य जारी रखा. जिसके बाद वो  1991, 1993, 1996 में फिर विधायक चुनकर आये. 1996 में वे पर्यावरण व वैकल्पिक उर्जा मंत्री बनाये गये.
राजनीति के साथ बच्चा पाठक शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय रहे. इलाके की शिक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए बच्चा पाठक ने लगातार कोशिश की. उन्होंने कई विद्यालयों की स्थापना के साथ ही उनके प्रबंधक रहकर काम भी किया.
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बलिया के चंद्रशेखर : वो प्रधानमंत्री जिसकी सियासत पर हमेशा हावी रही बगावत

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आज चन्द्रशेखर का 97वा जन्मदिन है….पूर्वांचल के ऐतिहासिक जिले बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी राज्य या केंद्र में मंत्री पद नहीं संभाला था, लेकिन संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी. युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर की सियासत में आखिर तक बगावत की झलक मिलती रही.

बलिया के किसान परिवार में जन्मे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ‘क्रांतिकारी जोश’ और ‘युवा तुर्क’ के नाम से मशहूर रहे हैं चन्द्रशेखर का आज 97वा जन्मदिन है. पूर्वांचल के ऐतिहासिक जिला बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी राज्य या केंद्र में मंत्री पद नहीं संभाला था, लेकिन संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी. चंद्रशेखर भले ही महज आठ महीने प्रधानमंत्री पद पर रहे, लेकिन उससे कहीं ज्यादा लंबा उनका राजनीतिक सफर रहा है.

चंद्रशेखर ने सियासत की राह में तमाम ऊंचे-नीचे व ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने के बाद भी समाजवादी विचारधारा को नहीं छोड़ा.चंद्रशेकर अपने तीखे तेवरों और खुलकर बात करने वाले नेता के तौर पर जाने जाते थे. युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर की सियासत में आखिर तक बगावत की झलक मिलती रही. बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में 17 अप्रैल 1927 को जन्मे चंद्रशेखर कॉलेज टाइम से ही सामाजिक आंदोलन में शामिल होते थे और बाद में 1951 में सोशलिस्ट पार्टी के फुल टाइम वर्कर बन गए. सोशलिस्ट पार्टी में टूट पड़ी तो चंद्रशेखर कांग्रेस में चले गए,

लेकिन 1977 में इमरजेंसी के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. इसके बाद इंदिरा गांधी के ‘मुखर विरोधी’ के तौर पर उनकी पहचान बनी. राजनीति में उनकी पारी सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुई और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रास्ते कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी तक पहुंची. चंद्रशेखर के संसदीय जीवन का आरंभ 1962 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने जाने से हुआ. इसके बाद 1984 से 1989 तक की पांच सालों की अवधि छोड़कर वे अपनी आखिरी सांस तक लोकसभा के सदस्य रहे.

1989 के लोकसभा चुनाव में वे अपने गृहक्षेत्र बलिया के अलावा बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र से भी चुने गए थे. अलबत्ता, बाद में उन्होंने महाराजगंज सीट से इस्तीफा दे दिया था. 1967 में कांग्रेस संसदीय दल के महासचिव बनने के बाद उन्होंने तेज सामाजिक बदलाव लाने वाली नीतियों पर जोर दिया और सामंत के बढ़ते एकाधिकार के खिलाफ आवाज उठाई. फिर तो उन्हें ऐसे ‘युवा तुर्क’ की संज्ञा दी जाने लगी, जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी.

‘युवा तुर्क’ के ही रूप में चंद्रशेखर ने 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और जीते. 1974 में भी उन्होंने इंदिरा गांधी की ‘अधीनता’ अस्वीकार करके लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का समर्थन किया. 1975 में कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में आवाज उठाई और अनेक उत्पीड़न सहे. 1977 के लोकसभा चुनाव में हुए जनता पार्टी के प्रयोग की विफलता के बाद इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में लौटीं और उन्होंने स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्रवाई की तो चंद्रशेखर उन गिने-चुने नेताओं में से एक थे,

जिन्होंने उसका पुरजोर विरोध किया. 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल सरकार के पतन के बाद अत्यंत विषम राजनीतिक परिस्थितियों में वे कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे. पिछड़े गांव की पगडंडी से होते हुए देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले चंद्रशेखर के बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी दिल्ली के प्रधानमंत्री आवास यानी 7 रेस कोर्स में कभी रुके ही नहीं. वह रात तक सब काम निपटाकर भोड़सी आश्रम चले जाते थे या फिर 3 साउथ एवेन्यू में ठहरते थे. उनके कुछ सहयोगियों ने कई बार उनसे इस बारे में जिक्र किया तो उनका जवाब था कि

सरकार कब चली जाएगी, कोई ठिकाना नहीं है. वह कहते थे कि 7 रेसकोर्स में रुकने का क्या मतलब है? प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें बहुत कम समय मिला, क्योंकि कांग्रेस ने उनका कम से कम एक साल तक समर्थन करने का राष्ट्रपति को दिया अपना वचन नहीं निभाया और अकस्मात, लगभग अकारण, समर्थन वापस ले लिया. चंद्रशेखर ने एक बार इस्तीफा दे देने के बाद राजीव गांधी से उसे वापस लेने का अनौपचारिक आग्रह स्वीकार करना ठीक नहीं समझा. इस तरह से उन्होंने पीएम बनने के तकरीबन 8 महीने के बाद ही इस्तीफा देकर पीएम की कुर्सी छोड़ दी.

(लेखक इंडिया टुडे ग्रुप के पत्रकार हैं)

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