शहनाई के जादूगर भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की आज यानी 21 मार्च 2018 को 102वीं जयंती है. इस मौके पर पूरा देश उन्हें याद कर रहा है. सर्च इंजन गूगल ने भी अपने डूडल को उन्हें समर्पित कर श्रद्धांजलि दी है.
बिस्मिल्लाह खां साहब का बनारस प्रेम किसी से छिपा नहीं था. वह यहां मां गंगा को संगीत सुनाते थे. उनकी शहनाई की स्वरलहरियां हर सुबह बनारस को संगीत के रंग से सराबोर कर देती थीं. यही वजह थी कि वह बनारस से कभी अलग नहीं हुए. केवल देश बल्कि विदेशों की भी कई हस्तियां उन्हें अपने साथ लेकर जाना चाहती थीं, लेकिन बिस्मिल्लाह खां साहब कहते थे कि आप मुझे ले जा सकते हैं, मेरे परिवार को ले जा सकते हैं लेकिन मेरी गंगा मैय्या और मेरा बनारस कहां से ले जा पाएंगे.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का जन्म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था. बिहार के डुमरांव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में पैदा हुए उस्ताद का बचपन का नाम क़मरुद्दीन. उस्ताद अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे. कहा जाता है कि चूंकि उनके बड़े भाई का नाम शमशुद्दीन था, इसलिए उनके दादा रसूल बख्श ने उन्हें “बिस्मिल्लाह! नाम से पुकारा, जिसका अर्थ था अच्छी शुरुआत और यही नाम ता-उम्र रहा.
छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला खां अपने पिता के साथ बनारस आ गए. यहां पर उन्होंने अपने चाचा अली बख्श ‘विलायती’ से शहनाई बजाना सीखा. उनके उस्ताद चाचा ‘विलायती’ विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करते थे.
मां नहीं चाहती थीं की उस्ताद शहनाई बजाएं
एक ऐसे दौर में जबकि गाने-बजाने को सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता था, तब बिस्मिल्ला ख़ां ने ‘बजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोकधुनों को अपनी तपस्या और रियाज से खूब संवारा और क्लासिकल मौसिकी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया. यह बहुत ही कम लोग जानते हैं कि ख़ां साहब की मां कभी नहीं चाहती थी कि उनका बेटा शहनाई वादक बने. वे इसे एक छोटा काम समझती थी. क्योंकिउन दिनों शहनाईवादकों को शादी, ब्याह और अन्य समारोह में बुलाया जाता था.
बनारस से दुनिया भर में गूंजी उस्ताद की शहनाई
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकलकर दुनिया के कई देशों में बिखरती रही. उनकी शहनाई अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में गूंजती रही. उनकी शहनाई की गूंज से फिल्मी दुनिया भी अछूती नहीं रही. उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी. आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी.
उस्ताद के जीवन का अर्थ सिर्फ और सिर्फ संगीत था
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की जिंदगी में संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा दूसरा कुछ न था. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन पुरस्कार से सम्मानित उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को साल 2001 मे भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. यकीनन उस्ताद के लिए जीवन का अर्थ केवल संगीत ही था. उनके लिए संगीत के अलावा सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे. वे संगीत से देश को एकता के सूत्र में पिरोना चाहते थे. वे कहते थे “सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है”. इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा रखने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की आखिरी इच्छा अधूरी ही रही और उन्होंने 21 अगस्त 2006 को इस दुनिया में अंतिम सांस ली. इसी के साथ उस्ताद और गंगा मैय्या का अटूट रिश्ता भी खत्म हुआ.
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