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2019 लोकसभा- जानें क्या रहा है बलिया का चुनावी इतिहास
सुनील कुमार
यूपी के पूर्वी छोर पर दो नदियों के बीच में एक तरफ गंगा तो दूसरी तरफ घाघरा नदी के बीच बलिया जिला बसा हुआ है। बिहार के तीन तरफ से बलिया का बॉर्डर लगता है, यही कारण है कि यहां कि भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन बिहार के साथ मेल खाती है। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगर में यहां के लोगों को भी बिहारी के रूप में ही जाना जाता है।
बलिया के इतिहास को जानने वाले इस जिले को बागी बलिया के रूप में याद करते हैं और यहां कि जनता भी अपने इस परिचय से अपने आप को गर्वान्वित महसूस करती है। बागी कि पहचान इसको इतिहास से मिला हुआ है अगर भारत के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ सेनानी मंगल पांडे कि बात करें तो उनका पैतृक गांव बलिया जिले में हैं।
1947 में भारत जब अपनी ‘आजादी’ का पहला जश्न मना रहा था तो उस समय बलिया के लोगों के लिए यह दूसरा मौका था क्योंकि 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में बलिया कुछ दिनों (4-5 दिन) तक अपने को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा चुका था। इन्दिरा गांधी के एकाधिपत्य को चुनौती देने वाले जयप्रकाश नारायण का जुड़ाव भी बलिया से रहा है तथा कांग्रेस में इन्दिरा के खिलाफ बगावत करने वाले चन्द्रशेखर भी बलिया से ही आते थे जिनको एक समय युवा तुर्क कहा जाता था। बागी बलिया के पीछे इस तरह के नायकों का एक इतिहास रहा है।
क्या रहा है चुनावी इतिहास
बलिया के लोगो ने कभी बाहरी लोगो को भी स्वीकार नहीं किया यही कारण है कि प्रथम चुनाव (1952) में जब देश में कांग्रेसी लहर थी तब भी यहां के लोगों ने कांग्रेस के बाहरी उम्मीदवार को हरा कर निर्दलीय उम्मीदवार मुरली मनोहर को संसद में भेजा।
उसके बाद भी जब कोई भी पार्टी बाहरी उम्मीदवार को मैदान में उतारा तो वह चुनाव हारी (जितने कि उम्मीद के बाद भी) जैसे कि 2004 में बसपा के उम्मीदवार कपिलदेव यादव या 2007 के उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार विनय शंकर तिवारी हों, चुनाव हार गए। 1957 के चुनाव में स्थानीय राधामोहन सिंह को कांग्रेस ने उम्मीदवार बना कर चुनाव में बाजी मारी जो कि 1971 तक बरकरार रहा जिसमें चार बार कांग्रेस को बलिया संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला।
1977 के चुनाव में कांग्रेस से बगावत कर अलग हुए युवा तुर्क चन्द्रशेखर ने जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में अपनी जीत को दर्ज किया और 1984 को छोड़कर वे अपने मृत्यु के समय (8 जुलाई, 2007) तक बलिया संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे।
1977 में चन्द्रशेखर को आंखों पर बैठाने वाले लोग 1984 में कह रहे थे कि ‘भिंडर वाले वापस जाओ’ इसका कारण यह था कि चन्द्रशेख ने स्वर्ण मन्दिर पर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का विरोध किया था। चन्द्रशेखर का विचार था कि किसी भी ‘लोकतांत्रिक’ देश में अपनी जनता पर सरकार सेना का इस्तेमाल नहीं कर सकती।
यह विचार देश के किसी भी चिंतनशील व्यक्ति के लिए सही है लेकिन चन्द्रशेखर को आज कि तरह उस समय ‘देशद्रोही’ या पाकिस्तान जाओ नहीं कहा गया। आज के समय में जब हम कश्मीर की जनता, नॉर्थ ईस्ट की जनता या आदिवासी बहुल इलाके में सैनिक, अर्द्धसैनिक के दमन का विरोध करते हैं या अफस्पा जैसे क्रूर कानून को हटाने की बात करने वाले को समाज के लिए खतरा बताने लगाते हैं और उनको ‘देशद्रोही’ के नाम से नवाजा जाता है।
बीसवीं सदी और इकीसवी सदी के भारत में यही फर्क आया है। समय के साथ सोच आगे बढ़ती है लेकिन हमारी सोच पीछे की तरफ हमें धकेल रही है जो कि किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए खतरा है।
1996 के चुनाव में भाजपा ने जॉर्ज फर्नांडीस के कहने पर चन्द्रशेखर के विरोध में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था इस तरह से 1996 के चुनाव में चन्द्रशेखर का भाजपा ने भी समर्थन किया था लेकिन चन्द्रशेखर ने अपने विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया और अटल जी के 13 दिन के सरकार में विश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा कि हमें समझ में नहीं आ रहा है कि अटल जी ने सरकार क्यों बनाई? लेकिन अभी के नेता अपने कुर्सी और सीट बचाने के लिए अपने विचारों को तिलांजली देते हुए किसी का भी गुणगान करना शुरू कर देते हैं।
चन्द्रशेखर ने कभी बलिया को विकास का सपना नहीं दिखाया उनका मानना था कि हिन्दुस्तान विकास करेगा तो बलिया का विकास अपने आप हो जायेगा। उनके विकास का पैमाना एक जिले में सड़क या बिजली लाना नहीं था लेकिन अभी हम एक कोई सड़क का वादा कर दे उसी को हम विकास समझ कर उसका गुणगान करते हैं।
हमें बलिया से ऐसे प्रतिनिधि को चुनना होगा जो बलिया ही नहीं देश को आगे ले जाए जो ऐसी सरकार का समर्थन करे जिसमें अपने ही लोगों पर अत्याचार, दमन न हो जिस सरकार में देशद्रोह जैसे जुमले से नहीं नवाजा जाए। जो चंद पुंजीपतियों के लिए जनता का शोषण नहीं करे, महिलाओं को सुरक्षा मिले, युवओं को रोजगार हो, जनप्रतिनिधि जनता के बीच का हो। बलिया के लोगों को धनबल और बाहुबल पर चुनाव जितने वाले उम्मीदवारों को नकार कर अपनी बागी तेवर का नजीर पेश करना चाहिए। बागी का मतलब शोषण-अत्चार के खिलाफ बगावत करना होता है।
वहीं साल 2014 में बलिया लोकसभा सीट पर हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार भरत सिंह ने जीत कर भगवा लहराया था। इसके बाद सपा के कैंडिडेट नीरज शेखर वर्मा, बसपा के वीरेंद्र कुमार पाठक, कौमी एकता दल के अफजल अंसारी और कांग्रेस की सुधा राय को हार का सामना करना पड़ा था।
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बलिया DM ने किया कार्यक्रम स्थल का निरीक्षण, बलिया में मुख्यमंत्री के दौरे को लेकर दिए ये निर्देश
बलिया जिलाधिकारी रविंद्र कुमार बांसडीह मैरीटार मार्ग स्थित पिंडहरा गांव में बघौली मौजे में आयोजित होने वाले महिला सम्मेलन की तैयारियों का जायजा लेने पहुंचे। इस दौरान उन्होंने जनसभा स्थल, हैलीपेड,सेफ हाउस और रास्ते की मरम्मत और घास फूस एवं झाड़ियों की कटाई एवं साफ-सफाई के निर्देश दिए।
जिलाधिकारी के निर्देश के क्रम में लोक निर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता ने अपनी टीम लगाकर उपलब्ध भूमि की पैमाइश करवाकर जनसभा स्थल और हैलीपेड के लिए जमीन की उपलब्धता सुनिश्चित की।
इस कार्यक्रम स्थल के लिए धान की फसल को कटवा लिया गया है और बचे धान की फसल को कटवा लिया जाएगा। इसके बाद जिलाधिकारी ने पास स्थित लोक निर्माण विभाग के गेस्ट हाउस की रंगाई पुताई करवाकर, शौचालय सहित अन्य व्यवस्थाएं दुरुस्त करने के निर्देश अधिशासी अभियंता को दिए।
जिलाधिकारी ने कार्यक्रम स्थल के मंच से 60 मीटर दूर हैलीपेड और जनसभा स्थल से कुछ मीटर की दूरी पर पार्किंग की व्यवस्था करने करने के निर्देश दिए। जिलाधिकारी ने मौके पर उपस्थित अधिकारियों को मुख्यमंत्री के आगमन की तैयारियों में तेजी लाने और अलर्ट मोड में रहने के निर्देश दिए।
इस निरीक्षण के दौरान सीआरओ त्रिभुवन, अपर पुलिस अधीक्षक दुर्गा शंकर तिवारी,एसडीएम राजेश गुप्ता सहित अन्य अधिकारी और लोक निर्माण विभाग के अधिकारी मौजूद थे।
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भाजपा नेता राजेश सिंह दयाल ने परेशान हाल बुजर्ग महिला का कराया इलाज, जीता सबका दिल !
सलेमपुर/ बलिया : सलमेपुर लोकसभा के मशहूर समाजसेवी राजेश सिंह दयाल के एक काम ने लोगों का दिल जीत लिया। यूं तो राजेश सिंह लगातार अपने कामों सामाजिक कामों की वजह से चर्चा में रहते हैं। लेकिन इस बार जो हुआ उसकी हर जगह सराहना हो रही है।
बता दें कि सलेमपुर के रहने वाले अरुण चौहान की मां काफी बीमार थीं। उन्हें किडनी और लिवर में कुछ समस्या थी। वे अपनी मां को लेकर लखनऊ पीजीआई पहुंचे, लेकिन वहां हॉस्पिटल स्टाफ छुट्टी पर होने के चलते उनकी मां का इलाज नहीं हो पाया।
इसके बाद परेशान अरुण ने राजेश सिंह को फोन दिया। राजेश सिंह दयाल ने तत्परता दिखाते हुए फौरन महिला को पीजीआई लखनऊ में भर्ती करवाया और उनका इलाज करवाया। राजेश सिंह पिंडी में लगे मुफ्त स्वास्थ्य केंद्र में अरुण चौहान से मिले थे। इसी दौरान उन्होंने उनकी मां का इलाज पीजीआई में करवाने का वादा किया था। राजेश सिंह ने जो वादा किया, उसे निभाया भी और महिला का इलाज करवाया।
गौरतलब है कि सलेमपुर लोक सभा में स्वास्थ व्यवस्था बेहद लचर है। जिसको देखते हुए राजेश सिंह की संस्था दयाल फाउंडेशन लागतार इस इलाके में स्वास्थ कैंप आयोजित कर रही है। इस संस्था से अबतक 1 लाख लोग फायदा उठा चुके हैं। ये कैंप सभी के लिए एकदम फ्री लगाया जाता है। अबतक ये कैंप बलिया के बेलथरा रोड, सिकदंरपुर , रेवती, वहीं देवरिया के भाटपार , पिंडी , सलेमपुर में आयोजीत हो चुका है। दयाल फाउंडेशन की तरफ से बताया गया है कि आगामी नवम्बर माह में बांसडीह , नगरा समेत कई इलाकों में कैंप आयोजित किया जाएगा।
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‘इण्डिया’ गठबंधन में दलित लीडरशीप वाले चेहरे गायब!
जयराम अनुरागी
लोकसभा 2024 के चुनाव को लेकर देश के दो प्रमुख गठबंधन एनडीए और इण्डिया अभी से अपना – अपना कुनबा बढ़ाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दिये है। केन्द्र में सतारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अपने नये- नये साथियों की तलाश कर अपनी संख्या 38 तक कर ली है। वहीं दुसरी तरफ देश के प्रमुख विपक्षी दलों ने 23 जून को पटना में एवं 17 व 18 जुलाई को कर्नाटक में बैठक कर 26 दलों की ” इण्डिया ” नामक गठबंधन बनाकर सतारुढ़ भाजपा की नींद उड़ा दी है।इसके बावजूद भी विपक्ष के लिए भाजपा को रोकने की राह आसान नहीं दिख रही है , क्योंकि देश की लगभग 20 प्रतिशत आबादी वाले दलित लीडरशीप वाले राजनैतिक दलो के चेहरे पटना एवं कर्नाटक की बैठक से गायब थे । दलित समुदाय से आने वाले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे उस बैठक में जरुर थे , लेकिन वह दलितों के प्रतिनिधि न होकर कांग्रेस के प्रतिनिधि थे।
देश की कुल 542 लोकसभा सीटों मे से 84 सींटे अनुसूचित जाति और 47 सींटे अनुसूचित जन जाति के लिए आरक्षित है और देश की 160 सीटों पर दलित मत सीधे निर्णायक भूमिका में है । इतनी बड़ी आबादी का ” इण्डिया ” गठबंधन में कोई प्रतिनिधि नहीं है, जो एक गम्भीर मामला है। देखा जाये तो समाजवादी पार्टी , राष्ट्रीय जनता दल , जनता दल ( यूनाईटेड) ,सीपीएम , टीएमसी , जनता दल ( सेक्युलर) , टीडीपी , टीआरएस, एनसीपी , अकाली दल , आम आदमी पार्टी और एआईडीएमके में दलित समाज का कोई ऐसा नहीं दिख रहा है , जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में कोई चर्चा होती हो । विपक्षी दलों की इस दलित विरोधी मानसिकता के चलते देश के दलित असमंजस में दिख रहे है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में किसके साथ रहना है।
अब तक विपक्ष में जो राजनैतिक परिस्थितियां बनी है उसमें दलित चेहरे वैसे ही गायब है , जैसे 2020 के बिहार विधानसभा और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से गायब थे। यही कारण है कि बिहार में तेजस्वी यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनते – बनते रह गये थे। यदि उस समय बिहार में तेजस्वी यादव हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा ( हम) के जीतनराम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी( वीआइपी) के मुकेश साहनी तथा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव आजाद समाज पार्टी ( कांशीराम) के प्रमुख चन्द्रशेखर आज़ाद को साथ ले लिए होते तो चुनाव परिणाम कुछ और होते । बिहार और उत्तर प्रदेश में दलितों की उठेक्षा कोई नयी बात नहीं है। बिहार में रामबिलास पासवान की भी वहां के तथाकथित पिछड़ो के मसीहा लगातार उपेक्षा करते रहे है। यही कारण है कि रामबिलास पासवान अपना अस्तित्व बचाने के लिए न चाहते हुए भी भाजपा गठबंधन में शामिल होने को मजबुर होते रहे है। वही गलती आज विपक्ष के नेता कर रहे है , जो विपक्षी एकजुटता के लिए कहीं से भी शुभ नहीं है।
सबको पता है कि बहुजन समाज पार्टी एक राष्ट्रीय पार्टी हैऔर इसका जनाधार कमोवेश देश के तेरह राज्यों में है। इसकी मुखिया सुश्री मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चार – चार बार मुख्यमंत्री भी रह चुकी है। अपनी लगातार उपेक्षा देख बसपा सुप्रीमो अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है। यदि समय रहते विपक्षी नेताओं ने मायावती से सम्पर्क साधा होता तो शायद ये विपक्षी खेमे में आ सकती थी । इनके बाद देश में दलित युवाओं के आइकान बन चुके आजाद समाज पार्टी( कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चन्द्रशेखर आज़ाद है , जिनके नाम पर देश के दलित नौजवान अपनी जान छिड़कते है , जिन्हें टाइम पत्रिका ने फरवरी 2021 में 100 उभरते नेताओं की अपनी वार्षिक सूची में शामिल किया है। हालांकि इनके पास कोई सांसद और विधायक नहीं है , लेकिन ये देश के करोड़ो दलितों को किसी के साथ जोड़ने की कूबत रखते है। अभी हाल ही में 21 जुलाई को जंतर – मंतर पर लाखों की भीड़ जुटाकर अपनी ताकत को दिखा चुके है ।
इन दोनों दलित नेताओें के बाद देश में दलितों के लिए एक और बड़ा नाम है प्रकाश राव अम्बेडकर का , जो भारतीय संविधान के जनक भारत रत्न बाबा साहब डा० भीमराव अम्बेडकर के प्रपौत्र है और ये देश के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य रह चुके है। देश के करोड़ो दलित इनके लिए भी अपनी जान छिड़कते हैं । ये फिलहाल भारतीय बहुजन महासंघ के संस्थापक अध्यक्ष है। यदि विपक्ष इन तीनों दलित नेताओं को अपने साथ जोड़ने में सफल हो जाते है तो विपक्ष की 2024 की राह बहुत हद तक आसान हो सकती है। इसके लिए विपक्ष के नेताओं को अपना दिल थोड़ा बड़ा करना होगा ।
इन दोनों बैठको में कई दलो से एक ही परिवार के कई – कई सदस्य शामिल हुए थे , लेकिन इसके आयोजकों ने विपक्ष के किसी दलित लीडरशीप वाले नेता को शामिल करना ऊचित नहीं समझा । दलित चिंतक लक्ष्मण सिंह भारती का कहना है कि आजादी के 75 साल बीतने के बावजूद आज भी दलितों के प्रति मानसिकता में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। गांव के दलितों के साथ अलग भेदभाव , दलित ब्यूरोक्रेट के साथ अलग भेदभाव और दलित राजनेताओं के साथ अलग तरह का भेदभाव आज भी जारी है। केवल उसका स्वरुप बदला है। यदि विपक्ष के नेता वास्तव में भाजपा गठबंधन को शिकस्त देना चाहते है तो उसमें दलित हेडेड लीडरशीप को ससम्मान शामिल करना चाहिए । यदि हो सके तो विपक्ष के तरफ से किसी दलित प्रधानमंत्री की घोषणा भी करनी चाहिए । यदि ऐसा होता है तो देश के दलित 1977 के बाद दुसरी बार दलित प्रधानमंत्री बनते देख इण्डिया गठबंधन के साथ तेजी से जुड़ सकते है , जिसका लाभ राष्टीय स्तर पर विपक्ष को मिल सकता है ।
लेखक – दलित सामाजिक संगठनों के प्रादेशिक नेटवर्क ” दलित एक्शन सिविल सोसाइटी उत्तर प्रदेश ” के अध्यक्ष है तथा ” डा० अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2002 ” राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं पत्रकार है ।
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