बलिया स्पेशल
सुरेन्द्र सिंह ने फिर दिया विवादित बयान, बलिया में भाजपा को पहुचाएगा नुकसान?
अपने विवादित बयान से हमेशा चर्चा में रहने वाले बैरिया से बीजेपी विधायक सुरेन्द्र सिंह फिर एक बार चर्चा में हैं। इस बार उन्होंने काग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा को शूर्पणखा बताते हुए काग्रेस को भारत और भारतीयता से काफी दूर बताया.
उन्होंने काग्रेस को होटल और बोतल की संस्कृति वाला बताया है. विधायक सुरेंद्र सिंह गुरुवार की शाम अपने पैतृक आवास चादपुर में पत्रकारों से मुखातिब थे.
उन्होंने कहा जो लोग नरेंद्र मोदी को दुर्योधन बता रहे हैं, उन्हें महाभारत का ज्ञान नहीं है. विपक्षी दलों के अधिकतर नेता बेईमान हैं, उसमें कोई दुर्योधन है तो कोई दु:शासन है. नरेंद्र मोदी अर्जुन हैं, महाभारत की लड़ाई में अर्जुन की जीत हुई थी. इस चुनाव रूपी महाभारत में अर्जुन रूपी मोदी की जीत होगी.
वहीँ ये बयान सामने आने के बाद कांग्रेस ने भी सुरेन्द्र सिंह पर करारा प्रहार किया है. कांग्रेस नेता ने कहा बहुत हो चुकी बयान बाजी नेता जी ने अपने कार्यकाल में कौन सा काम जनता के लिए किया है उसका हिसाब दें. नहीं तो जनता लोकसभा चुनाव में इस बयान का बदला लेने के लिए तैयार है.
वैसे उनका ये बयान बलिया में बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है.बलिया के राजीनीतिक पंडितों की माने तो सुरेन्द्र सिंह द्वारा लगातार दिया जा रहा विवादित बयान इस बार लोकसभा में बीजेपी को नुकसान पहुचायेगा. एक राजीनीतिक विश्लेषक ने नाम छापने की शर्त पर बताया की ‘लोकसभा चुनाव के दौरान विधायक का इस तरह दिया गया बयान वीरेंदर सिंह मस्त के लिए नुक्सान पंहुचा सकता है.
आप को बता दें की बलिया लोकसभा के लिए 19 मई को वोट डाले जायेंग। इस सीट पर बीजेपी के उमीदवार वीरेंद्र सिंह मस्त की सीधी लड़ाई गठबंधन के प्रत्याशी सनातन पाण्डेय से है.
कौन हैं सुरेंद्र सिंह
बैरिया विधानसभा में पड़ता है एक गांव. नाम है चांदपुर. यहीं के रहने वाले हैं सुरेंद्र सिंह. एक अक्टूबर 1962 को जन्मे. 1983 में ग्रैजुएट हो गए. 84 में बीएड किए. 86-87 में एमए किया. बस इसी के बाद उनको नौकरी मिल गई. मास्टर साहब बन गए. सहायक अध्यापक. पोस्टिंग मिली पास के ही गांव दुबे छपरा में. पीएन इंटर कॉलेज में. मास्टर बनने के बाद वो एमएड भी कर डाले. पर इस मास्टरी, पढ़ाई-लिखाई के पहले वो एक और क्लास में जाने लगे थे. संघ की क्लास में. राष्ट्रवाद की शिक्षा लेने. बीएड करते हुए ही प्रचारक का काम भी करते रहे. टीचर बनने के बाद संघ में तहसील कार्यवाह रहे. फिर जिला कार्यवाह का पद मिला. माने टीचरी भी चलती रही और प्रचारकी भी.
फिर 2003 में सुरेंद्र सिंह के अलगाव का वक्त आया. तत्कालीन विधायक भरत सिंह (अब बलिया के सांसद) से कुछ अनबन हुई. अपना एक संगठन बना डाला. नाम द्वाबा विकास मंच. 2003 के विधानसभा चुनाव में अपना निर्दल प्रत्याशी खड़ा कर दिया. 10 हजार वोट मिले. भरत सिंह चुनाव हार गए. 2011-12 में कांग्रेस में रहे. मगर फिर कांग्रेस छोड़ दिए और बीजेपी से करीबी बढ़ानी शुरू कर दी. 2014 में ये करीबी और बढ़ी जब भरत सिंह लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. उन्हें चुनाव लड़वाया. सांसद बनवाया. इसका रिटर्न गिफ्ट मिला 2017 के विधानसभा चुनाव में. स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि भरत सिंह की पैरवी पर ही सुरेंद्र की टिकट पक्की हुई. सुरेंद्र विधायक बन गए. मास्टरी से पांच साल की छुट्टी ले ली. पर अब यही सुरेंद्र सांसद भरत सिंह के लिए मुसीबत बन गए हैं. उनका भारत वर्सेज पाकिस्तान का बयान भी 12 अप्रैल को सांसद भरत सिंह के कार्यक्रम में ही आया. जब वो प्रधानमंत्री के अनशन के समर्थन में अनशन कर रहे थे.
अवैध खनन के खिलाफ लड़ते थे, अब इन पर लग रहे आरोप
बैरिया विधानसभा यूपी और बिहार बॉर्डर पर पड़ती है. गंगा और घाघरा नदी के किनारे पड़ने वाला कटान का क्षेत्र भी यहीं है. सो यहां बाढ़ की समस्या रहती है. तो इस मुद्दे को लेकर भी सुरेंद्र सिंह शुरू से ही एक्टिव रहे हैं. वहां की भी कोई शिकायत आने पर ये विरोध करने पहुंच जाते थे. अधिकारियों से भिड़ जाते थे. वहां भी कई बार मारपीट हो चुकी है. मगर स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि इनके विधायक बनने के बाद इस क्षेत्र में अवैध खनन और बढ़ गया है. बालू खनन की शिकायतें रोज आती हैं. बैरिया में कुछ लोगों के लिए बालू सोने की तरह हो गई है. ये कुछ लोग विधायक जी के आदमी बताए जाते हैं.
इसी तरह इलाके में अवैध शराब का भी धंधा जोरों पर है. पिछले कुछ महीनों में ही 50 से ज्यादा ट्रक अवैध हरियाणा मेड शराब के साथ पकड़े जा चुके हैं. इसकी वजह भी बैरिया विधानसभा का बिहार से सटा होना है. अब बिहार में तो शराब बैन है तो ये अवैध सप्लाई भी यहीं से हो रही है.
विधायक का इतिहास तो आपने जान लिया. शुरू से ही बवाली किस्म के रहे हैं. हालांकि यही जुझारुपन, बागीपन ही इनकी ताकत बना. मगर अब ये बवाल वो अपनी जुबान से करने लगे हैं. आलम ये है कि उनके इस बड़बोलेपन के कारण उनके समर्थक ही उनका विरोध करने लगे हैं. पार्टी के नेता भी इनसे खुश नहीं हैं. मगर सुरेंद्र सिंह मानने को तैयार नहीं हैं. पहले गैंगरेप के आरोपी विधायक कुलदीप सेंगर वाले मामले में विवादित बयान दिए. फिर भारत और पाकिस्तान के बीच ही चुनाव करवा दिए. खैर पहले बयान पर अब सफाई आ गई है. बोले- गलत बयान दे दिया था. मुझे बताया गया था कि जिसका रेप हुआ वो तीन बच्चों की मां है. जबकि विधायक तीन बच्चों का बाप है.
पर अब इस सफाई से क्या फायदा. जो नुकसान होना था वो तो हो गया है. विधायक का तो पता नहीं, ऐसे बयानों से बीजेपी की लंका लगी पड़ी है. उन्नाव गैंगरेप का विवाद पहले से ही है. मगर यहीं सवाल भी खड़ा होता है. अगर बीजेपी को इन बयानों से वाकेयी कोई फर्क पड़ता है तो वो कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती. फिर ऐसा पहली बार नहीं है जब बीजेपी के किसी नेता ने भड़काऊ बयान दिया हो. भारत-पाकिस्तान किया हो. हिंदू-मुसलमान किया हो. संगीत सोम, सुरेश राणा जैसे तमाम चेहरे हैं जो विवादित बयान देकर ही चर्चा में आए और नेता बन गए. शायद यही कारण है कि इस रास्ते पर सब चलना चाहते हैं. फिर बीजेपी इन पर कार्रवाई न करके इन्हें एक तरह से मौन स्वीकृति दे ही रही है.
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बलिया में भयंकर सड़क हादसा, 4 की मौत 1 गंभीर रूप से घायल
बलिया में भयंकर सड़क हादसा सामने आया है जहां 4 लोगों की मौत की खबरें सामने आ रही है। वहीं एक गंभीर रूप से घायल बताया जा रहा है। जानकारी के मुताबिक ये हादसा फेफना थाना क्षेत्र के राजू ढाबा के पास बुधवार की रात करीब 10:30 बजे हुआ। खबर के मुताबिक असंतुलित होकर बलिया से चितबड़ागांव की ओर जा रही सफारी कार पलट गई। जिसमें चार लोगों की मौत हो गई। जबकि एक गंभीर रूप से घायल हो गया।
सूचना मिलने पर पर पहुंची पुलिस ने चारों शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दिया। जबकि गंभीर रूप से घायल को ट्रामा सेंटर में भर्ती कराया। मृतकों की शिनाख्त क्रमशः रितेश गोंड 32 वर्ष निवासी तीखा थाना फेफना, सत्येंद्र यादव 40 वर्ष निवासी जिला गाज़ीपुर, कमलेश यादव 36 वर्ष थाना चितबड़ागांव, राजू यादव 30 वर्ष थाना चितबड़ागांव बलिया के रूप में की गई। जबकि घायल छोटू यादव 32 वर्ष निवासी बढ़वलिया थाना चितबड़ागांव जनपद बलिया का इलाज जिला अस्पताल स्थित ट्रामा सेंटर में चल रहा है।
बताया जा रहा है कि सफारी में सवार होकर पांचो लोग बलिया से चितबड़ागांव की ओर जा रहे थे, जैसे ही पिकअप राजू ढाबे के पास पहुँचा कि सड़क हादसा हो गया।
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कौन थे ‘शेर-ए-पूर्वांचल’ जिन्हें आज उनकी पुण्यतिथि पर बलिया के लोग कर रहे याद !
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बलिया के चंद्रशेखर : वो प्रधानमंत्री जिसकी सियासत पर हमेशा हावी रही बगावत
आज चन्द्रशेखर का 97वा जन्मदिन है….पूर्वांचल के ऐतिहासिक जिले बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी राज्य या केंद्र में मंत्री पद नहीं संभाला था, लेकिन संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी. युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर की सियासत में आखिर तक बगावत की झलक मिलती रही.
बलिया के किसान परिवार में जन्मे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ‘क्रांतिकारी जोश’ और ‘युवा तुर्क’ के नाम से मशहूर रहे हैं चन्द्रशेखर का आज 97वा जन्मदिन है. पूर्वांचल के ऐतिहासिक जिला बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी राज्य या केंद्र में मंत्री पद नहीं संभाला था, लेकिन संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी. चंद्रशेखर भले ही महज आठ महीने प्रधानमंत्री पद पर रहे, लेकिन उससे कहीं ज्यादा लंबा उनका राजनीतिक सफर रहा है.
चंद्रशेखर ने सियासत की राह में तमाम ऊंचे-नीचे व ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने के बाद भी समाजवादी विचारधारा को नहीं छोड़ा.चंद्रशेकर अपने तीखे तेवरों और खुलकर बात करने वाले नेता के तौर पर जाने जाते थे. युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर की सियासत में आखिर तक बगावत की झलक मिलती रही. बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में 17 अप्रैल 1927 को जन्मे चंद्रशेखर कॉलेज टाइम से ही सामाजिक आंदोलन में शामिल होते थे और बाद में 1951 में सोशलिस्ट पार्टी के फुल टाइम वर्कर बन गए. सोशलिस्ट पार्टी में टूट पड़ी तो चंद्रशेखर कांग्रेस में चले गए,
लेकिन 1977 में इमरजेंसी के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. इसके बाद इंदिरा गांधी के ‘मुखर विरोधी’ के तौर पर उनकी पहचान बनी. राजनीति में उनकी पारी सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुई और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रास्ते कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी तक पहुंची. चंद्रशेखर के संसदीय जीवन का आरंभ 1962 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने जाने से हुआ. इसके बाद 1984 से 1989 तक की पांच सालों की अवधि छोड़कर वे अपनी आखिरी सांस तक लोकसभा के सदस्य रहे.
1989 के लोकसभा चुनाव में वे अपने गृहक्षेत्र बलिया के अलावा बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र से भी चुने गए थे. अलबत्ता, बाद में उन्होंने महाराजगंज सीट से इस्तीफा दे दिया था. 1967 में कांग्रेस संसदीय दल के महासचिव बनने के बाद उन्होंने तेज सामाजिक बदलाव लाने वाली नीतियों पर जोर दिया और सामंत के बढ़ते एकाधिकार के खिलाफ आवाज उठाई. फिर तो उन्हें ऐसे ‘युवा तुर्क’ की संज्ञा दी जाने लगी, जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. संसद से लेकर सड़क तक उनकी आवाज गूंजती थी.
‘युवा तुर्क’ के ही रूप में चंद्रशेखर ने 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और जीते. 1974 में भी उन्होंने इंदिरा गांधी की ‘अधीनता’ अस्वीकार करके लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का समर्थन किया. 1975 में कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में आवाज उठाई और अनेक उत्पीड़न सहे. 1977 के लोकसभा चुनाव में हुए जनता पार्टी के प्रयोग की विफलता के बाद इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में लौटीं और उन्होंने स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्रवाई की तो चंद्रशेखर उन गिने-चुने नेताओं में से एक थे,
जिन्होंने उसका पुरजोर विरोध किया. 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल सरकार के पतन के बाद अत्यंत विषम राजनीतिक परिस्थितियों में वे कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे. पिछड़े गांव की पगडंडी से होते हुए देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले चंद्रशेखर के बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी दिल्ली के प्रधानमंत्री आवास यानी 7 रेस कोर्स में कभी रुके ही नहीं. वह रात तक सब काम निपटाकर भोड़सी आश्रम चले जाते थे या फिर 3 साउथ एवेन्यू में ठहरते थे. उनके कुछ सहयोगियों ने कई बार उनसे इस बारे में जिक्र किया तो उनका जवाब था कि
सरकार कब चली जाएगी, कोई ठिकाना नहीं है. वह कहते थे कि 7 रेसकोर्स में रुकने का क्या मतलब है? प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें बहुत कम समय मिला, क्योंकि कांग्रेस ने उनका कम से कम एक साल तक समर्थन करने का राष्ट्रपति को दिया अपना वचन नहीं निभाया और अकस्मात, लगभग अकारण, समर्थन वापस ले लिया. चंद्रशेखर ने एक बार इस्तीफा दे देने के बाद राजीव गांधी से उसे वापस लेने का अनौपचारिक आग्रह स्वीकार करना ठीक नहीं समझा. इस तरह से उन्होंने पीएम बनने के तकरीबन 8 महीने के बाद ही इस्तीफा देकर पीएम की कुर्सी छोड़ दी.
(लेखक इंडिया टुडे ग्रुप के पत्रकार हैं)
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